हिंदू धर्म में मान्यता है कि माता पार्वती भगवान शिव की दूसरी पत्नी हैं. भगवान शिव की पहली पत्नी माता सती थीं. माता पार्वती, मां सती का स्वरूप हैं. माता सती की एक गलती के कारण भगवान शिव ने उनका पत्नी के रूप में त्याग कर दिया था. तब दुखी होकर माता सती ने यज्ञ की अग्नि में समाकर अपनी देह का त्याग कर दिया था. बाद में माता पार्वती ने घोर तपस्या कर के भगवान शिव को फिर से पति के रूप में प्राप्त किया. और मां पार्वती के रूप में जन्म लिया. भगवान शिव के पावन माह सावन में जानते हैं कि आखिर क्या कारण था जिसकी वजह से भगवान शिव को, माता सती का त्याग करना पड़ा. इसके पीछे एक पौराणिक कथा भी है, जिसका वर्णन गोस्वामी तुलसीदास ने रामचरितमानस ग्रंथ में किया है.
कौन हैं पहली पत्नी
माता सती भगवान शिव की पहली पत्नी हैं। वह प्रजापति दक्ष की पुत्री थीं। राजा दक्ष ने अपनी तपस्या से देवी भगवती को प्रसन्न किया जिसके बाद माता भगवती ने ही सती के रूप में उनके घर में जन्म लिया। देवी भगवती का रूप होने के कारण सती दक्ष की सभी पुत्रियों में सबसे अलौकिक थीं। वह बचपन से ही भगवान शिव की भक्ति में लीन रहती थीं। सती ने भगवान शिव को अपने पति के रूप में पाने के लिए सच्चे मन से उनकी आराधना की थी। उन्हें इसका फल भी प्राप्त हुआ और उन्हें शिव पति के रूप में प्राप्त हुए।
हम सभी यह जानते हैं कि पार्वती जी भगवान शिव की दूसरी धर्मपत्नी थीं। हालांकि यह भी सत्य है कि पार्वती जी भगवान महाकाल की पहली धर्मपत्नी सती जी का ही रूप थीं और उन्होंने ही अपना अगला जन्म पार्वती जी के रूप में लिया था। ऐसा कहा जाता है कि सती जी ने अपने पिता दक्ष प्रजापति के यज्ञ में अपना और अपने पति शिव जी का अपमान होते देख वहीं बीच सभा में बैठकर अग्नि में अपने शरीर का आत्मदाह कर लिया था लेकिन क्या आपको पता है कि इस घटना की जिम्मेदार भी स्वयं सती जी थीं।
क्यों भगवान शिव ने किया माता सती का त्याग
बहुत समय पहले जब त्रेतायुग में श्रीराम अपने भ्राता लक्ष्मण के साथ अपनी पत्नी सीता जी की खोज में लगे हुए थे। उसी समय कैलाश पर्वत पर माता सती अपने पति महादेव के साथ बैठी हुई थीं। उस समय उनके मन में एक सवाल आया कि श्रीराम जो स्वयं भगवान विष्णु के अवतार हैं वे इस तरह एक स्त्री वियोग में वन में मारे-मारे क्यों फिर रहे हैं। यदि वे चाहें तो अवश्य ही रावण की लंका का पता लगाकर तुरंत उसे मार सकते हैं।
यही सवाल उन्होंने महाकाल अर्थात महादेव से पूछा। तब महादेव ने बताया कि हां, यह सत्य है कि प्रभु श्रीराम भगवान विष्णु के अवतार हैं लेकिन उन्होंने पृथ्वी पर एक मनुष्य के रूप में जन्म लिया है इसलिए उन्हें भी अन्य मनुष्यों की तरह एक साधारण व्यक्ति की तरह सभी कष्टों से गुजरना होगा। तब सती जी ने कहा कि क्या मनुष्य रूप में भी उनके अंदर वह गुण मौजूद हैं जो भगवान विष्णु के अंदर समाए हुए हैं।
तब महादेव ने उनकी शंका का समाधान करते हुए कहा कि हां, एक मनुष्य होते हुए भी श्रीराम उन सभी गुणों से परिपूर्ण हैं जो स्वयं श्रीहरि के अंदर मौजूद हैं। माता सती ने इस पर संदेह प्रकट करते हुए कहा कि मुझे तो यह संभव नहीं लगता क्योंकि यदि उनके अंदर वह कलाएं होतीं तो वे आज माता सीता की तलाश में वन-वन में भटक नहीं रहे होते।
तब माता सती ने निश्चय किया कि वे श्रीराम की परीक्षा लेंगी और उन्होंने अपने पति भगवान शिव से इसकी आज्ञा मांगी लेकिन शिव जी ने उन्हें समझने की कोशिश कि यह उचित नहीं है। श्रीराम स्वयं सच्चिदानंद हैं इसलिए उनकी परीक्षा लेना एक मूर्खता होगी लेकिन कई बार समझाने के बाद भी जब माता सती नहीं मानी तब मजबूरन महादेव ने माता सती को श्रीराम की परीक्षा लेने की इजाजत दे दी।
उसके बाद माता सती ने देवी सीता का रूप धारण किया और उसी रास्ते पर बैठ गईं जहां से थोड़ी ही देर में श्रीराम और लक्ष्मण गुजरने वाले थे। जब श्रीराम और लक्ष्मण वहां से गुजरे तब लक्ष्मण जी की नजर देवी सीता का रूप धारण की हुई माता सती पर पड़ी और लक्ष्मण उन्हें ही सीता समझकर प्रसन्न हो गए और उन्हें प्रणाम किया। जब थोड़ी देर बाद श्रीराम की नजर उन पर पड़ी तब उन्होंने हाथ जोड़कर प्रणाम करते हुए कहा कि माता क्या आज आप अकेले ही वन विहार पर निकली हैं? मेरे प्रभु भगवान शिव कहां पर हैं।
यह सुनकर माता सती बहुत ही लज्जित हो गईं और अपने वास्तविक रूप में आते हुए उन्होंने श्रीराम और लक्ष्मण को देवी सीता की खोज में सफलता हेतु आशीर्वाद दिया एवं अपने गंतव्य कैलाश पर्वत को चली गईं। जब शिव जी ने उनसे पूछा कि क्या तुमने श्रीराम की परीक्षा ली थी तब माता सती ने उनसे कहा कि उन्होंने श्रीराम की कोई भी परीक्षा नहीं ली थी।
परंतु महादेव तो अंतर्यामी थे इसलिए उन्हें यह पता चल गया कि किस तरह माता सती ने देवी सीता का रूप धारण करके उनके प्रभु श्रीराम की परीक्षा ली थी। तब महादेव को इस बात का एहसास हुआ अब न ही वे माता सती को अपनी धर्मपत्नी मान सकते हैं और ना ही उनका त्याग कर सकते हैं। इसलिए उन्होंने मन ही मन माता सती का पत्नी रूप में त्याग करते हुए उन्हें अपनी पुत्री के रूप में अपना लिया।
उस दिन माता सती ने जब देखा कि महादेव की कृपादृष्टि अब उन पर पहले जैसी नहीं रही तब उन्होंने इसका कारण ब्रह्मा जी से पूछा। उन्होंने कहा कि महादेव ने ध्यान से आपके सीता बनने के बाद श्रीराम की परीक्षा लेने का रहस्य जान लिया है इसलिए अब से वे आपको कभी अपनी पत्नी का दर्जा नहीं देंगे।
उसके बाद जब दुखी माता सती को अपने पिता दक्ष द्वारा किए जा रहे यज्ञ का पता चला तब उन्होंने अपने नाथ शिव जी से उस यज्ञ में जाने की आज्ञा मांगी परन्तु शिव जी यह जानते थे यदि माता सती उस यज्ञ में गईं तो वे अवश्य ही अपने शरीर का त्याग कर देंगी। इसलिए वे लगातार माता सती को यज्ञ में जाने से रोकते रहे लेकिन अंत में माता सती ने किसी की ना सुनी और यज्ञ में चली गईं। इसके उपरांत यज्ञ में अपने और अपने प्रभु शिव जी के बारे में गलत सुनकर उन्होंने वहीं पर आत्मदाह कर लिया।