परिचय
हिन्दू धर्म के अनुसार, खाटू श्याम जी ने द्वापरयुग में श्री कृष्ण से वरदान प्राप्त किया था कि वे कलयुग में उनके नाम श्याम से पूजे जाएँगे। बर्बरीक जी का शीश खाटू नगर (वर्तमान राजस्थान राज्य के सीकर जिला) में दफ़नाया गया इसलिए उन्हें खाटू श्याम बाबा कहा जाता है। कथा के अनुसार एक गाय उस स्थान पर आकर रोज अपने स्तनों से दुग्ध की धारा स्वतः ही बहा रही थी। बाद में खुदाई के बाद वह शीश प्रकट हुआ, जिसे कुछ दिनों के लिए एक ब्राह्मण को सूपुर्द कर दिया गया। एक बार खाटू नगर के राजा को स्वप्न में मन्दिर निर्माण के लिए और वह शीश मन्दिर में सुशोभित करने के लिए प्रेरित किया गया। तदन्तर उस स्थान पर मन्दिर का निर्माण किया गया और कार्तिक माह की एकादशी को शीश मन्दिर में सुशोभित किया गया, जिसे बाबा श्याम के जन्मदिन के रूप में मनाया जाता है। मूल मंदिर 1027 ई. में रूपसिंह चौहान और उनकी पत्नी नर्मदा कँवर द्वारा बनाया गया था। मारवाड़ के शासक ठाकुर के दीवान अभय सिंह ने ठाकुर के निर्देश पर १७२० ई. में मंदिर का जीर्णोद्धार कराया।
कौन हैं बाबा खाटू श्याम
खाटू श्याम असल में भीम के पोते और घटोत्कच के बेटे बर्बरीक हैं। इन्हीं की खाटू श्याम के रूप में पूजा की जाती है। बर्बरीक में बचपन से ही वीर और महान योद्धा के गुण थे और इन्होंने भगवान शिव को प्रसन्न कर उनसे तीन अभेद्य बाण प्राप्त किए थे। इसी कारण इन्हें तीन बाण धारी भी कहा जाता है।
खाटूश्यामजी की कहानी
वनवास के दौरान, जब पांडव अपनी जान बचाते हुए इधर-उधर घूम रहे थे, तब भीम का सामना हिडिम्बा से हुआ। हिडिम्बा ने भीम से एक पुत्र को जन्म दिया जिसे घटोखा कहा जाता था। घटोखा से पुत्र हुआ बर्बरीक। इन दोनों को अपनी वीरता और शक्तियों के लिए जाना जाता था। जब कौरव और पांडवों के बीच युद्ध होना था, तब बर्बरीक ने युद्ध देखने का निर्णेय लिया था। श्री कृष्ण ने जब उनसे पूछा कि वो युद्ध में किसकी तरफ हैं, तब उन्होंने कहा था कि जो पक्ष हारेगा वो उसकी तरफ से लड़ेंगे। ऐसे में श्री कृष्ण युद्ध का परिणाम जानते थे और उन्हें डर था कि ये कहीं पांडवों के लिए उल्टा न पड़ जाए। ऐसे में कृष्ण जी ने बर्बरीक को रोकने के लिए दान की मांग की। दान में उन्होंने उनसे शीश मांग लिया। दान में बर्बरीक ने उनको शीश दे दिया, लेकिन आखिर तक उन्होंने अपनी आंखों से युद्ध देखने की इच्छा जाहिर की।
श्री कृष्ण ने इच्छा स्वीकार करते हुए उनका सिर युद्ध वाली जगह पर एक पहाड़ी पर रख दिया। युद्ध के बाद पांडव लड़ने लगे कि जीत का श्रेय किसको जाता है, इसमें बर्बरीक कहते हैं कि श्री कृष्ण की वजह से उन्हें जीत हासिल हुई है। श्री कृष्ण इस बलिदान से काफी खुश हुए और उन्हें कलियुग में श्याम के नाम से पूजे जाने का वरदान दे दिया।
तब कहलाए शीश के दानी
बर्बरीक की महाभारत का युद्ध देखने की इच्छा हुई। जब वे अपनी माँ से आशीर्वाद प्राप्त करने पहुंचे, तब माँ को हारे हुए पक्ष का साथ देने का वचन देकर युद्ध भूमि की तरफ प्रस्थान कर गए। सर्वव्यापी भगवान श्री कृष्ण युद्ध का अंत जानते थे,इसलिए उन्होंने सोचा कि अगर कौरवों को हारता देख बर्बरीक कौरवों का साथ देने लगे तो पांडवों की हार निश्चित है। इसलिए लीलाधर ने ब्राह्मण का वेष धारण कर चालाकी से बालक बर्बरीक का शीश दान में मांग लिया। बर्बरीक को आश्चर्य हुआ कि कोई ब्राह्मण उनका शीश क्यों मांगेगा ऐसा सोचकर उन्होंने ब्राह्मण से उनके वास्तविक रूप में दर्शन की इच्छा व्यक्त की। श्री कृष्ण ने उन्हें अपने विराट रूप के दर्शन कराए। बर्बरीक ने उनसे प्रार्थना की कि वे अंत तक युद्ध देखना चाहते हैं। श्री कृष्ण ने बर्बरीक की यह बात स्वीकार कर ली और उनका सिर सुदर्शन चक्र से अलग कर दिया।
शीश काटने के बाद माँ चंडिका देवी ने वीर बर्बरीक के शीश को अमृत से सींचकर देवत्व प्रदान किया। तब इस नवीन जाग्रत शीश से श्री कृष्ण बोले -”हे वत्स! जब तक पृथ्वी, नक्षत्र और सूर्य-चन्द्रमा हैं,तब तक तुम सब लोगों के लिए पूज्यनीय हो जाओगे। इस तरह उनका शीश युद्ध भूमि के समीप ही एक पहाड़ी पर सुशोभित किया गया जहाँ से बर्बरीक सम्पूर्ण युद्ध का जायज़ा ले सकते थे। श्री कृष्ण ने युद्ध की समाप्ति के बाद बर्बरीक के शीश को पुनः प्रणाम करते हुए कहा -”हे वीर बर्बरीक! आप कलयुग में मेरे नाम से सर्वत्र पूजित होकर अपने भक्तों के अभीष्ट कार्यों को पूर्ण करोगे ।” ऐसा कहने पर समस्त नभमंडल उल्लसित हो उठा एवं श्याम बाबा के देवस्वरूप शीश पर पुष्प वर्षा होने लगी।
कलियुग में खाटू श्याम के पूजे जाने के 10 महत्वपूर्ण कारण
- खाटू श्याम का अर्थ है ‘मां सैव्यम पराजित:’ यानी जो हारे और निराश लोगों को संबल प्रदान करता हो.
- खाटू श्याम को श्रीकृष्ण का कलयुगि अवतार माना जाता है. खाटू श्याम का जन्मोत्सव कार्तिक शुक्ल की देवउठनी एकादशी के दिन मनाया जाता है.
- हिंदू पंचांग के फाल्गुन माह के शुक्ल षष्ठी से लेकर बारस तक खाटू श्याम के मंदिर परिसर में भव्य मेला लगता है. इसे ग्यारस मेला के नाम से भी जाना जाता है.
- पौराणिक कथा के अनुसार, खाटू श्याम पांडव पुत्र भीम के पौत्र थे. उनका नाम बर्बरीक था.
- भीम के पुत्र का नाम घटोत्कच था और उसके पुत्र का नाम बर्बरीक था. बर्बरीक की माता का नाम हिडिम्बा था. आज के समय में बर्बरीक को ही बाबा खाटू श्याम जी के नाम से जाना जाता है.
- महाभारत के बर्बरीक को श्रीकृष्ण ने कलियुग में स्वयं के नाम से पूजे जाने का वरदान दिया था. आज खाटू श्याम के नाम से बर्बरीक को पूजा जाता है.
- स्वप्न दर्शनोपरांत बाबा श्याम, खाटू धाम में स्थित कुंड में प्रकट हुए और श्रीकृष्ण शालीग्राम के रूर में मंदिर में दर्शन देते हैं.
- भगवान श्रीकृष्ण को अपना शीश दान देने के कारण खाटू श्याम जी को शीश दानी भी कहा जाता है. इसके अलावा उन्हें मोरछीधारी भी कहा जाता है.
- खाटू श्याम जी को विश्व का दूसरा और सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर भी कहा जाता है.
- खाटू श्याम जी ने आगे वाले दल का पक्ष लिया था,इसलिए इन्हें हारे का सहारा कहा जाता है.
हर साल लगता है खाटूश्याम मेला
प्रत्येक वर्ष होली के दौरान खाटू श्यामजी का मेला लगता है। इस मेले में देश-विदेश से भक्तजन बाबा खाटू श्याम जी के दर्शन के लिए आते हैं। इस मंदिर में भक्तों की गहरी आस्था है। बाबा श्याम, हारे का सहारा, लखदातार, खाटूश्याम जी, मोर्विनंदन, खाटू का नरेश और शीश का दानी इन सभी नामों से खाटू श्याम को उनके भक्त पुकारते हैं। खाटूश्याम जी मेले का आकर्षण यहां होने वाली मानव सेवा भी है। बड़े से बड़े घराने के लोग आम आदमी की तरह यहां आकर श्रद्धालुओं की सेवा करते हैं। कहा जाता है ऐसा करने से पुण्य की प्राप्ति होती है।
खाटूश्याम जी के चमत्कार
भक्तों की इस मंदिर में इतनी आस्था है कि वह अपने सुखों का श्रेय उन्हीं को देते हैं। भक्त बताते हैं कि बाबा खाटू श्याम सभी की मुरादें पूरी करते हैं। खाटूधाम में आस लगाने वालों की झोली बाबा खाली नहीं रखते हैं।
कैसा होता है निशान?
बाबा खाटू श्याम को चढ़ाया जाने वाला झंडा लाल, केसरिया और नारंगी रंग का होता है. इस ध्वज पर भगवान श्रीकृष्ण और बाबा श्याम की तस्वीर और मंत्र छपे होते हैं. धार्मिक मान्यता है कि जो भक्त बाबा खाटू श्याम पर ये झंडा चढ़ाता है , तो उसकी सभी मनोकामनाएं पूरी हो जाती हैं.
इस यात्रा को क्या कहते हैं?
बाबा के इस निशान को मंदिर तक ले जाने की एक यात्रा होती है जिसे पद यात्रा कहा जाता है. इस यात्रा में भक्त नंगे पैर चलकर मंदिर में निशान चढ़ाते हैं. इस निशान यात्रा को श्री श्याम ध्वज का निशान यात्रा भी कहते हैं. ये यात्रा मुख्य रूप से 18 किमी. की होती है जो रींगस से लेकर खाटू श्याम मंदिर तक जाती है.
कब से शुरू हुई निशान चढ़ाने की परंपरा?
खाटू श्याम बाबा को निशान चढ़ाने की परंपरा प्राचीन काल से चली आ रही है. बहुत से भक्त जब मन्नत मांगने बाबा खाटू श्यामजी के मंदिर जाते हैं तो बाबा के दरबार में माथा टेक मन्नत मांगते हैं उनसे प्राथना करते हैं कि अगर उनकी मांगी गई मन्नत पूरी हो गई, तो वे दरबार में निशान चढ़ाने के लिए वापस खाटू नगरी आएंगे. हालांकि कई ऐसे भक्त भी हैं जो मन्नत पूरी होने से पहले भी बाबा के दरबार पर निशान चढ़ाते हैं.
इसलिए चढ़ाते हैं निशान
भक्तों द्वारा चढ़ाए गए कुछ निशानों पर नारियल और मोर पंख भी अंकित होता है. ऐसी मान्यता है कि इस निशान को चढ़ाने से सभी मनोकामनाएं पूरी होती हैं और जीवन में सब कुछ कुशल मंगल रहता है. खाटू श्याम पर ध्वज चढ़ाने से पहले उनकी विशेष पूजा-अर्चना की जाती है. आजकल भक्त अपनी भक्ति दिखाने के लिए सोने-चांदी के बने निशान भी चढ़ाते हैं. निशान यात्रा में नंगे पैर चलकर भगवान के मंदिर तक पहुंचकर निशान चढ़ाना बेहद उत्तम माना जाता है.