Jagannath Puri:- क्या सच में जगन्नाथ पूरी में धड़कता है श्री कृष्ण का दिल? जाने जगन्नाथ पुरी की खासयित और इससे जुडी इतिहासिक और पौराणिक कथा!!

jaggannath puri

क्या है खासियत?

आपको जानकर हैरानी होगी कि इस मंदिर को बनने में लगभग 14 वर्ष लगे। वैसे मंदिर में स्थापित बलभद्र जगन्नाथ तथा सुभद्रा की काष्ठ मूर्तियों का पुनर्निर्माण 1863, 1939, 1950, 1966 तथा 1977 में भी किया गया था।

कहा जाता है कि यह मंदिर भगवान विष्णु के अवतार श्रीकृष्ण को समर्पित है। भगवान जगन्नाथ इस मंदिर में अपने भाई बलराम और बहन सुभद्रा के साथ विराजन हैं। आश्चर्यचकित कर देने वाली बात यह है कि मंदिर के शीर्ष पर लगा ध्वज हमेशा हवा के विपरीत लहराता है।

कैसी है संरचना?

इस मंदिर की संरचना लगभग 400,000 वर्ग फुट में फैली हुई है। इसके शिखर पर चक्र और ध्वज भी स्थापित किया गया है। इन दोनों का खास महत्व है। सुदर्शन चक्र का और लाल ध्वज भगवान जगन्नाथ के मंदिर के अंदर विराजमान होने का प्रतीक है। अष्टधातु से निर्मित इस चक्र को नीलचक्र भी कहा जाता है।

मंदिर में चार कक्ष हैं जिनके नाम भोग मंदिर, नाथ मंदिर, जगमोहन और मंदिर हैं। मंदिर परिसर एक दीवार से घिरा हुआ है, जिसके प्रत्येक तरफ द्वार है। कुल मिलाकर मंदिर बहुत खूबसूरत है, जिसे देखकर ही मजा आ जाएगा। 

मंदिर से जुड़े रोचक तथ्य

  • माना जाता है कि हम मंदिर के शीर्ष पर लगे सुदर्शन चक्र को कहीं से भी देख सकते हैं।
  • कहा जाता है कि ऊपर से कोई भी पक्षी या विमान नहीं उड़ पाता है।
  • बताया जाता है कि इस मंदिर में भक्तों के लिए बनने वाला प्रसाद कभी कम नहीं पड़ता है।
  • जगन्नाथ मंदिर के शिखर पर स्थित झंडा हमेशा हवा की विपरीत दिशा में लहराता है। जगन्नाथ मंदिर की चोटी पर लगा झंडा सिद्धांत का एक अनूठा अपवाद है।

जगन्नाथ मंदिर का समय

जगन्नाथ मंदिर में दर्शन करने के लिए कोई प्रवेश शुल्क नहीं लगता है। जगन्नाथ पूरी मंदिर सुबह 5:00 से रात के 12:00 बजे तक खुला रहता है। आप किसी भी वक्त दर्शन करने के लिए जा सकते हैं।

निराली हैं तीनों मूर्तियां

जगत के नाथ यहां अपने बड़े भाई बलभद्र और बहन सुभद्रा के साथ विराजते हैं। तीनों ही देव प्रतिमाएं काष्ठ की बनी हुई हैं। हर बारह वर्ष बाद इन मूर्तियों को बदले जाने का विधान है, पवित्र वृक्ष की लकड़ियों से पुनः मूर्तियों की प्रतिकृति बना कर फिर से उन्हें एक बड़े आयोजन के साथ प्रतिष्ठित किया जाता है। वेदों के अनुसार भगवान हलधर ऋग्वेद स्वरुप हैं,श्री हरि (नृसिंह) सामदेव स्वरूप हैं, सुभद्रा देवी यजुर्वेद की मूर्ति हैं और सुदर्शन चक्र अथर्ववेद का स्वरूप माना गया है। यहां श्रीहरि दारुमय रूप में विराजमान हैं। मंदिर के गर्भगृह में प्रभु जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा की मूर्तियां एक रत्नमंडित पाषाण चबूतरे पर गर्भगृह में स्थापित हैं। चारों प्रवेश द्वारों पर हनुमान जी विराजमान हैं जो कि श्रीजगन्नाथ जी के मंदिर की सदैव रक्षा करते हैं।

इसलिए रह गईं भगवान की मूर्तियां अधूरी

शास्त्रों के अनुसार विश्वकर्मा (बूढ़े बढ़ई के रूप में) जब मूर्ति बना रहे थे तब राजा इंद्रदयुम्न के सामने शर्त रखी कि वे दरवाज़ा बंद करके मूर्ति बनाएंगे और जब तक मूर्तियां नहीं बन जातीं तब तक अंदर कोई प्रवेश नहीं करेगा। यदि दरवाज़ा पहले खुल गया तो वे मूर्ति बनाना छोड़ देंगे। बंद दरवाज़े के अंदर मूर्ति निर्माण का काम हो रहा है या नहीं, यह जानने के लिए राजा नित्यप्रति दरवाज़े के बाहर खड़े होकर मूर्ति बनने की आवाज़ सुनते थे। एक दिन राजा को अंदर से कोई आवाज़ सुनाई नहीं दी,उनको लगा कि विश्वकर्मा काम छोड़कर चले गए हैं। राजा ने दरवाज़ा खोल दिया और शर्त अनुसार विश्वकर्मा वहां से गायब हो गए। भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा की मूर्तियां अधूरी ही रह गईं। उसी दिन से आज तक मूर्तियां इसी रूप में यहां विराजमान हैं।

जगन्नाथजी की मूर्ति में धड़कता है श्रीकृष्ण का दिल

पौराणिक मान्यता के अनुसार जब श्रीकृष्ण की लीला अवधि पूर्ण हुई तो वे देह त्यागकर वैकुंठ चले गए। उनके पार्थिव शरीर का पांडवों ने दाह संस्कार किया। लेकिन इस दौरान उनका दिल जलता ही रहा। पांडवों ने उनके जलते हुए दिल को जल में प्रवाहित कर दिया, तब यह दिल लट्ठे के रूप में परिवर्तित हो गया। यह लट्ठा राजा इंद्रदयुम्न को मिल गया और उन्होंने भगवान जगन्नाथ की मूर्ति के अंदर इसे स्थापित कर दिया,तब से वह यहीं है। हालांकि बारह वर्ष बाद मूर्ति बदली जाती है पर लट्ठा अपरिवर्तित रहता है। आश्चर्य की बात तो यह है कि मंदिर के पुजारियों ने भी इसे कभी नहीं देखा है। लट्ठा परिवर्तन के समय पुजारी की आँखों पर पट्टी बांध दी जाती है और हाथ कपड़े से ढके हुए होते हैं। बगैर देखे और बिना स्पर्श किए इस लट्ठे को पुरानी मूर्ति में से निकल कर नई मूर्ति में स्थापित कर दिया जाता है, उनके एहसास के मुताबिक यह लट्ठा बहुत कोमल है। मान्यता है कि कोई यदि इसको देख लेगा तो उसके प्राणों को खतरा हो सकता है।

रथ यात्रा का महत्व

धार्मिक मान्यताओं के मुताबिक, रथ यात्रा निकालकर भगवान जगन्नाथ को प्रसिद्ध गुंडिचा माता के मंदिर पहुंचाया जाता हैं, जहां भगवान 7 दिनों तक विश्राम करते हैं। इसके बाद भगवान जगन्नाथ की वापसी की यात्रा शुरू होती है। कहते हैं कि गुंडिचा मंदिर जगन्नाथ जी का मौसी का घर है। जगन्नाथ रथयात्रा दस दिवसीय महोत्सव होता है। इस यात्रा में भाग लेने के लिए हजारों की संख्या में श्रद्धालु देश के अलग-अलग कोनों से यहां आते हैं और भगवान के रथ को खींचकर सौभाग्य पाते हैं। कहते हैं जो भी व्यक्ति रथ यात्रा में शामिल होता है, उसे हर प्रकार की सुख-समृद्धि मिलती है।

मंदिर से जुड़ी बातें

जगन्नाथ मंदिर की रसोई दुनिया की सबसे बड़ी रसोई मानी जाती है। जगन्नाथ मंदिर ही एक अकेला ऐसा मंदिर है जहां का प्रसाद ‘महाप्रसाद’ कहलाता है। महाप्रसाद को मिट्टी के 7 बर्तनों में रखकर पकाया जाता है। महाप्रसाद को पकाने में सिर्फ लकड़ी और मिट्टी के बर्तन का ही प्रयोग किया जाता है। जगन्नाथ मंदिर से जुड़ा एक रहस्य यह भी है कि कितनी भी धूप में इस मंदिर की परछाई कभी नहीं बनती है।

जगन्नाथ पुरी का इतिहास

कहा जाता है। प्राचीन समय में यहां नीलांचल पर्वत था जहां देवतागण नीलमाधव भगवान की पूजा किया करते थे। नीलांचल पर्वत के धरती में समा जाने के बाद उनकी मूर्ति को देवतागण यहां इस स्थान पर ले आये किन्तु यह स्थान नीलांचल के नाम से ही जाना गया। यह भगवान विष्णु के चार धामों में से एक है। यहां लक्ष्मीपति विष्णु ने तरह-तरह की लीलाएं की थीं। ब्रह्म और स्कंद पुराण के अनुसार यहां भगवान विष्णु पुरुषोत्तम नीलमाधव के रूप में अवतरित हुए और सबर जनजाति के परम पूज्य देवता बन गए। सबर जनजाति के देवता होने के कारण यहां भगवान जगन्नाथ का रूप कबीलाई देवताओं की तरह है। पहले कबीले के लोग अपने देवताओं की मूर्तियों को काष्ठ से बनाते थे। जगन्नाथ मंदिर में सबर जनजाति के पुजारियों के अलावा ब्राह्मण पुजारी भी हैं। ज्येष्ठ पूर्णिमा से आषाढ़ पूर्णिमा तक सबर जाति के दैतापति जगन्नाथजी की सारी रीतियां करते हैं।

पुराण के अनुसार नीलगिरि में पुरुषोत्तम हरि की पूजा की जाती है। पुरुषोत्तम हरि को यहां भगवान राम का रूप माना गया है। सबसे प्राचीन मत्स्य पुराण में लिखा है कि पुरुषोत्तम क्षेत्र की देवी विमला है और यहां उनकी पूजा होती है। रामायण के उत्तराखंड के अनुसार भगवान राम ने रावण के भाई विभीषण को अपने इक्ष्वाकु वंश के कुल देवता भगवान जगन्नाथ की आराधना करने को कहा। आज भी पुरी के श्री मंदिर में विभीषण वंदापना की परंपरा कायम है। इस मंदिर का सबसे पहला प्रमाण महाभारत के वनपर्व में मिलता है। कहा जाता है कि सबसे पहले सबर आदिवासी विश्‍ववसु ने नीलमाधव के रूप में इनकी पूजा की थी। आज भी पुरी के मंदिरों में कई सेवक हैं जिन्हें दैतापति के नाम से जाना जाता है।जगन्नाथ जी के इस मंदिर को लेकर अनेक विश्वास हैं। एक कथा के अनुसार सर्वप्रथम एक सबर आदिवासी विश्वबसु ने नील माधव के रूप में जगन्नाथ की आराधना की थी। इस तथ्य को प्रमाणित बताने वाले आज भी जगन्नाथ पुरी के मंदिर में आदिवासी मूल के अनेकों सेवक हैं जिन्हें दैतपति नाम से जाना जाता है, की उपस्थिति का उल्लेख करते हैं। विशेष बात यह है कि भारत सहित विश्व के किसी भी अन्य वैष्णव मंदिर में इस तरह की कोई परम्परा नहीं है।

बेशक जगन्नाथ जी को श्रीकृष्ण का अवतार माना जाता है लेकिन जहां तक जगन्नाथ पुरी के ऐतिहासिक महत्व का प्रश्र है, पुरी का उल्लेख सर्वप्रथम महाभारत के वनपर्व में मिलता है। इस क्षेत्र की पवित्रता का बखान कूर्म पुराण, नारद पुराण, पद्म पुराण आदि में यथेष्ट रहा है।

यह मंदिर वैष्णव परम्पराओं और संत रामानंद से जुड़ा हुआ है। यह गौड़ीय वैष्णव सम्प्रदाय के लिए खास महत्व रखता है। इस पंथ के संस्थापक श्री चैतन्य महाप्रभु भगवान की ओर आकर्षित हुए थे और कई वर्षों तक पुरी में रहे भी थे।

आदि शंकराचार्य की आध्यात्मिक भारत यात्रा इतिहास का एक महत्वपूर्ण और निर्णायक अध्याय है। इस विजय यात्रा के दौरान पुरी भी आदि शंकराचार्य का पड़ाव रहा। अपने पुरी प्रवास के दौरान उन्होंने अपनी विद्वत्ता से यहां के बौद्ध मठाधीशों को परास्त कर उन्हें सनातन धर्म की ओर आकृष्ट करने में सफलता प्राप्त की। शंकराचार्य जी द्वारा यहां गोवर्धन पीठ भी स्थापित की गई। इस पीठ के प्रथम जगतगुरु के रूप में शंकराचार्य जी ने अपने चार शिष्यों में से एक पद्मपदाचार्य (नम्पूदिरी ब्राह्मण) को नियुक्त किया था।

यह सर्वज्ञात है कि शंकराचार्य जी ने ही जगन्नाथ की गीता के पुरुषोत्तम के रूप में पहचान घोषित की थी। संभवत: इस धार्मिक विजय के स्मरण में ही श्री शंकर एवं पद्मपाद की मूर्तियां जगन्नाथ जी के रत्न सिंहासन में स्थापित की गईं थीं। मंदिर द्वारा ओडिशा मे प्रकाशित अभिलेख मदलापंजी के अनुसार पुरी के राजा दिव्य सिंहदेव द्वितीय (1763 से 1768) के शासनकाल में उन दो मूर्तियों को हटा दिया गया था।

12वीं सदी में पुरी में श्री रामानुजाचार्य जी के आगमन और उनकी विद्वत्ता से प्रभावित होकर तत्कालीन राजा चोलगंग देव जिसके पूर्वज 600 वर्षों से परम महेश्वर रहे, उनकी आसक्ति वैष्णव धर्म के प्रति हो गई। तत्पश्चात अनेक वैष्णव आचार्यों ने पुरी को अपनी कर्मस्थली बनाकर यहां अपने मठ स्थापित किए और इस तरह पूरा ओडिशा ही धीरे-धीरे वैष्णव रंग में रंग गया।

एक अन्य कथा के अनुसार राजा इंद्रद्युम्न को स्वप्न में जगन्नाथ जी के दर्शन हुए और निर्देशानुसार समुद्र से प्राप्त काष्ठ (काष्ठ को यहां दारु कहा जाता है) से मूर्तियां बनाई गईं। उस राजा ने ही जगन्नाथ पुरी का मंदिर बनवाया था जबकि ऐतिहासिक प्रमाणों के अनुसार पुरी के वर्तमान जगन्नाथ मंदिर का निर्माण वीर राजेन्द्र चोल के पौत्र और कङ्क्षलग के शासक अनंतवर्मन चोड्गंग (1078-1148) ने करवाया था। 1174 में राजा आनंग भीम देव ने इस मंदिर का विस्तार किया जिसमें 14 वर्ष लगे। वैसे मंदिर में स्थापित बलभद्र जगन्नाथ तथा सुभद्रा की काष्ठ मूर्तियों का पुनर्निर्माण 1863, 1939, 1950, 1966 तथा 1977 में भी किया गया था।

मंदिर के स्थान पर था बुद्ध का दांत

कुछ इतिहासकारों का मत है कि इस मंदिर के स्थान पर पूर्व में एक बौद्ध स्तूप स्थित था और उस स्तूप में भगवान बुद्ध का एक दांत रखा गया था। बाद में इसे इसकी वर्तमान स्थिति, कैंडी, श्रीलंका पहुंचा दिया गया।7वीं सदी में इंद्रभूति ने बौद्ध धर्म के बज्रायन परम्परा के आरंभ से पुरी के बारे में कुछ प्रमाणित जानकारी मिलती है। उसके बाद पुरी वज्रायन परम्परा का पूर्व भारत में एक बड़ा केंद्र बन गया था।

 

वज्रायन के संस्थापक इंद्रभूति ने अपने प्रसिद्ध ग्रंथ ज्ञानसिद्धि में जगन्नाथ का उल्लेख किया है जिससे यह संकेत मिलता है कि उन दिनों जगन्नाथ का संबोधन गौतम बुद्ध के लिए भी किया जाता था। उस काल में बौद्ध धर्म को वैष्णव सम्प्रदाय ने आत्मसात कर लिया था और तभी जगन्नाथ अर्चना ने लोकप्रियता पाई। यह दसवीं शताब्दी के लगभग हुआ, जब उड़ीसा में सोमवंशी राज चल रहा था। कुछ का मत है कि जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा वास्तव में बौद्ध धर्म के बुद्ध, संघ और धम्म के प्रतीक हैं। 15 से 17वीं सदी के ओडिया साहित्य में भी लगभग यही मत ध्वनित होता है।

बेड़ी में जकड़े हैं श्री पवनसुत हनुमान

मंदिर के पश्चिम दिशा में है बेड़ी हनुमान मंदिर। यह जंजीर से बंधा एक हनुमान मंदिर है और समुद्र तट के नजदीक स्थित एक छोटा सा मंदिर है जो पुरी के चक्र नारायण मंदिर की पश्चिम दिशा की ओर बना है। इसे दरिया महावीर मंदिर भी कहा जाता है। दरिया का अर्थ होता है समुंद्र जो महावीर भगवान हनुमान का दूसरा नाम है। यह वर्णन कुछ पुराणों में भी मिलता है कि पुरी धाम की सदियों से रक्षा भगवान हनुमान करते है क्योंकि यह जिम्मेदारी उन्हें भगवान जगन्नाथ ने सौंपी है।

श्री जगन्नाथ मंदिर के उत्तरी भाग में भी हनुमान महाप्रभु के रक्षक के रूप में विराजमान है। भगवान हनुमान के इस स्वरूप को चारी चक्र और अष्ठ भुजा हनुमान कहते हैं। चारी चक्र का मतलब हुआ कि हनुमान सुरक्षा की खातिर चार चक्र को धारण करते हैं। अष्ठ भुजा यानी वो हनुमान जो आठ भुजाओं से युक्त हैं। हनुमान जी के चार हाथ में सुदर्शन चक्र, 2 हाथ प्रणाम की मुद्रा में और 2 हाथ से तालियां बजाते हुए वह भगवान जगन्नाथ के नाम की निरंतर स्तुति करते हैं। इसी प्रकार बाकी दो दिशाओं में भी भगवान हनुमान का यहां प्राचीण मंदिर है जो महाप्रभु के रक्षक के रुप में विराजमान है।माना जाता है कि 3 बार समुद्र ने श्री जगन्नाथ के मंदिर को तोड़ दिया था। कहते हैं कि महाप्रभु जगन्नाथ ने वीर मारुति (हनुमानजी) को यहां समुद्र को नियंत्रित करने हेतु नियुक्त किया था, परंतु जब-तब हनुमान भी जगन्नाथ-बलभद्र एवं सुभद्रा के दर्शन के लिए नगर में प्रवेश कर जाते थे, ऐसे में समुद्र भी उनके पीछे नगर में प्रवेश कर जाता था।

हनुमानजी की इस आदत से परेशान होकर जगन्नाथ महाप्रभु ने हनुमानजी को यहां स्वर्ण बेड़ी से आबद्ध कर दिया। तब से हनुमानजी करते हैं श्री जगन्नाथ की समुद्र से रक्षा, यहां जगन्नाथपुरी में ही सागर तट पर बेदी हनुमान का प्राचीन एवं प्रसिद्ध मंदिर है। भक्त लोग बेड़ी में जगड़े हनुमानजी के दर्शन करने के लिए आते हैं।

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